"कहा जाता है कि "बढ़ती उम्र" और "गुज़रते वक़्त" के साथ इंसान की "सोच" भी "बदल" जाती है, और उसका "चीज़ों" को देखने और सोचने का "नज़रिया" "बदलता" जाता है।
"दरअसल, उम्र का बढ़ना, केवल दिन या साल का बदलना नही होता, बढ़ती उम्र और वक़्त के साथ हमारी सोच और समझ भी बदलती है, फिर हम "वैसे" नही रह जाते जैसे पहले थे, युवावस्था में हम जिन चीजों और बातों की "परवाह" नही करते थे, कुछ उम्र ढलते ही हम उनकी परवाह करने लगते हैं, हमारे बारे में समाज के अच्छे और बुरे सोचने को "तवज्जो" देने लगते हैं, हमारे शौक, और रुचियों, में भी "परिवर्तन" होने लगता है, और धीरे-धीरे हम अपने मर्ज़ी और इच्छा से ना जीकर, समाज के लोगों की "हमारे प्रति" अच्छी और बुरी सोच के लियें जीने लगते हैं।
"असल में, यह ठीक भी है कि बढ़ती उम्र और वक़्त के साथ-साथ हमारी सोच और समझ बदलनी भी चाहिए, क्योंकि जो इंसान 40 की उम्र में भी दुनिया को वैसे ही देखता है, जैसे 20 की उम्र में देखता था, तो इसका सीधा सा मतलब है कि उसने अपनी ज़िन्दगी के 20 साल "बेकार" कर दिये, हमें बदलते वक़्त के साथ अपनी सोच और "विचारों" में "बदलाव" अवश्य करना चाहिये, तभी हम समाज को "सही ढंग" से समझ पायेंगे और अपनी आने वाली "पीढ़ियों" को भी "सही राह" और "मार्गदर्शन" दे पायेंगे।
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