पत्रकारिता थाने, नेताओं और अधिकारियों के सहारे दलाली का रोजगार चलाने वाले भी कहलाते है पत्रकार
आज पत्रकारिता का परिदृश्य
जब गरीब मज़दूर रोटी के लिए तड़प रहे हो, कर्ज़ में डूबा किसान आत्महत्या कर रहा हो, मुस्लिम गौकशी के नाम पर अत्याचार का शिकार हो रहा हो। नौकरियों के लिए युवा ठोकर खा रहा हो जब घरो के चूल्हे ठंडे पड़ गए हो। सारे वायदे दरकिनार कर हिन्दू मुस्लिम के बीच नफरत का बीज बोया जा रहा हो और युवाओं में विकास रोजगार की जगह देश भक्ति का जोश भरा जा रहा हो तो मीडिया इन सब मुद्दों को पीछे रख सरकार के प्रचार प्रसार व अधिकारियों की तारीफ में अपनी कलम की रोशनाई जाया कर रही हो तो ऐसे में समझ लीजिए पत्रकार को स्वयं को महफूज़ समझना बहुत बड़ी भूल कही जाएगी।
पत्रकारिता का मतलब शासन-प्रशासन की तारीफ करना नही बल्कि उनके द्वारा किये जा रहे कार्यो की समीक्षा कर जनता को उसकी सच्चाई बताना होता है। समाज पर हो रहे अन्याय,पनप रहे भ्रष्टाचार की घुटी हुई आवाज़ को बुलंद करना होना चाहिए पत्रकारिता का लक्ष्य। यदि पुलिस एक एनकाउंटर करती है तो मीडिया सुर्खिया बना डालती है, कथित मुठभेड़ या कथित बदमाश भी लगाना गवारा नही करती है। यहां तक कि पुलिस की नज़र में स्वयं को बेहतर व उनका खास होना दर्शाने के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिसकी पत्रकारिता का संविधान इजाज़त नही देता, जिससे पत्रकारों की छवि धूमिल हो रही है, बल्कि स्वय पत्रकार अपनी छवि धूमिल कर रहे है ऐसा कहना कोई गलत नही होगा। यदि पत्रकारों के साथ अधिकारी या पुलिस कर्मी अभद्रता करते है तो दोष अभद्रता करने वाले को नही स्वयं को देना चाहिए क्योकि कुछ चाटूकार तथाकथित पत्रकारों ने पत्रकारिता का अर्थ बदल कर रख दिया है।
अब तो स्थति यह बन गई है कि कोई भी गुडवर्क दिखाने के लिए अब अधिकारियों को पत्रकारों की तलाश करने की आवश्यकता नही होती बल्कि कथित पत्रकार स्वयं थानों व सरकारी दफ्तरों में बैठकर तलाश में रहते है कि तारीफ में चंद शब्द लिखने का मौका कब मिले।
यदि ऐसा कहा जाए कि वो पत्रकारिता नही बल्कि पुलिस व अधिकारियों के लिए प्रवक्ता का काम करते है तो कोई गलत नही होगा। कहने का मतलब ये है कि उन्हें खबरों से मतलब नही बल्कि अधिकारियों में अपनी पहचान कायम रखना पसंद होता है।इन हालातों में जब किसी पत्रकार पर दबाव बनाने के लिए उसे प्रताड़ित किया जाता है। तो आवाज़ आती है कि हमने पुलिस का बहुत सहयोग किया लेकिन हमको सहयोग नही दिया गया, ऐसा सुनकर चाटूकारिता की बू आती है पत्रकारिता की नही। अब खबर आ रही है कि जनपद स्तर पर मीडिया सेल का गठन होने जा रहा है जिससे पत्रकारों को थानों व कचहरी में भागा दौड़ी करने की जरूरत नही, सभी सूचनाएं व खबरे उसी सेल से प्राप्त हो जाएगी।
जिससे प्रोफेसनल व सच्चे कलमकार पत्रकारों को कोई दिक्कत नही होने वाली क्योकि सच्चे पत्रकार को जानकारी जुटाना ज्यादा मुश्किल नही, मगर अधिकारियों के चहितो (थानों में बैठने वाले) कथित पत्रकारों की नींद उड़ जाएगी क्योकि प्रोफेसनल पत्रकार थाने में भी जाता है तो सिर्फ खबर की जानकारी ही लेता है और चला आता है क्योंकि उसकी पहचान उसकी कलम होती है। हैरान होने की उन्हें आवश्यकता है जिन्होंने पत्रकारिता को चाटूकारिता बना डाला।
दरअसल पत्रकारिता की मिट्टी पलीत ऐसे संस्थानों द्वारा भी की जा रही है जो मात्र प्रेस कार्ड का कारोबार करना अपना मकसद समझते है।कुछ कथित लोकल स्तर के सम्पादक ऐसे लोगो को पत्रकार बना देते है जो चपरासी के लायक भी नही होते। पत्रकार बनना कोई ज्यादा बड़ी बात नही,कार्ड जारी हुआ और बस बन गए पत्रकार। वो बात अलग है कि उन्हें पत्रकारिता की एबीसीडी भी मालूम नही होती और वो ब्लेकमेलिंग, धोष, रोब जमाना ही पत्रकारिता समझ लेते है, गलत व्यवहार के कारण अगर कही फस जाते है तो नाम पत्रकारिता का बदनाम होता है जबकि वो प्रोफेसनल नही सिर्फ कार्ड वाले पत्रकार होते है।
जो संस्थान बन्द पड़े है उनके कार्ड आये दिन जारी होते है, अखबार भले ही न दिखता हो मगर उसके पत्रकार बेशुमार दिखाई देते है। इसलिए कहता हूँ कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के लिए ऐसा कानून बने जिससे लोकल हो या नेशनल अखबार उनमे पत्रकारो की व्यवहारिक योग्यता की परख तो होनी ही चाहिए जबकि कुछ लोकल अखबारों में यही नियम है भी। वहां काबिलियत के आधार पर चयन होता है मगर कुछ संस्थानों ने प्रेस कार्ड बेचना ही व्यापार बना दिया।
कार्ड होना पत्रकार नही बल्कि कलमकार होना पत्रकार होता है, पत्रकार के पास शब्दों का भंडार बेशुमार होता है, वो अधिकारियों या जन प्रतिनिधियों से सवाल करने में जरा भी नही झिझकता, पत्रकारो के हित के लिए चाटूकारों का बहिष्कार जरूर होना चाहिए।
शायद तभी पत्रकारिता को पुनः उसी नजरिये से देखा जायेगा जिसकी हम कल्पना करके इस क्षेत्र में आते है।
आपका साथ हेल्पलाइन फाउंडेशन
सचिव
(देवेन्द्र प्रताप सिंह कुशवाहा)
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