देश की आजादी के सबसे बड़े सितारे शहीद ए आजम सरदार भगत सिंह की फांसी की सजा पर आज ही के दिन (14 फरवरी, 1931) को अंतिम मुहर लगाई गई थी। आपको बता दें कि, केस की सुनवाई की दौरान भारत में भगत सिंह की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी, और जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे थे। जिसे देखते हुए वॉयसराय लॉर्ड इरविन ने 1 मई 1930 को आपतकाल की घोषणा करते हुए इस केस को जल्द खत्म करने की खातिर उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों का एक स्पेशल ट्रिब्यूनल बनाने का अध्यादेश पारित किया था। यह अध्यादेश (और ट्रिब्यूनल) न तो सेंट्रल असेंबली में और न ही ब्रिट्रिश संसद में पारित किया गया था अत: यह 31 अक्टूबर 1930 को समाप्त हो जाता। इसी वजह से 7 अक्टूबर, 1930 को ट्रिब्यूनल ने सभी साक्ष्यों के आधार पर अपना 300 पन्नों का निर्णय दिया। ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को सांडर्स की मौत का दोषी माना और उन्हें फांसी से मौत की सजा सुनाई। अन्य 12 आरोपियों को कठोर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस ट्रिब्यूनल की अध्यक्षता जस्टिस जी. सी. हल्टन ने की थी। जबकि उसके अन्य सदस्य जस्टिस जे. के. टैप और जस्टिस सर अब्दुल कादिर थे। इसके बाद पंजाब में एक रक्षा समिति ने प्रिवी काउंसिल में एक अपील करने के लिए योजना बनाई। भगत सिंह शुरूआत में इस अपील के खिलाफ थे लेकिन बाद में यह सोचकर की शायद इस अपील से ब्रिटेन में भी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन लोकप्रिय होगा मान गए थे। अपील में दावा किया गया था कि जिस अध्यादेश से यह ट्रिब्यूनल बनाया गया था वह अवैध था, जबकि सरकार ने इसका विरोध करते हुए अपना पक्ष रखा था कि वायसराय पूरी तरह से ऎसा ट्रिब्यूनल बनाने के लिए सक्षम हैं। इस अपील को न्यायाधीश विस्काउंट डुनेडिन ने बर्खास्त कर दिया था। प्रिवी काउंसिल में अपील खारिज होने के बाद, तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने 14 फरवरी 1931 को इरविन के समक्ष एक दया याचिका लगाई थी, जिसे भी खारिज कर दिया गया था। और अंतत: 23 मार्च, 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरू को फांसी दे दी गई।
Devendra Pratap Singh Kushwaha 9935161356
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